सोचकर पिरोये और गूंथे हुए शब्द ,
ताक रहे एक टक, निर्जीव निश्तब्ध.
. बंध उस सन्दर्भ में,लगते जो निरर्थक,
ढोंगी बन झूठ को छुपाओगे कब तक.
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मुख्यधारा तब तक बहती रहेगी भाई ,
जब तलक हम मिलकर भरते रहेंगे खाई .
अपनी धारा मोड़ लो, दूसरों को जोड़ लो ,
डूब नई धारा में, झूठ को झकझोर लो .
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बिखरे अल्फाजों को, मिलके हम बटोर लें ,
पिरों के नए डोर से,एक नया मोड़ लें .
सुसुप्त उन व्यथाओं के, बंधनों को खोल दो,
यथार्थ के प्रतिबिम्ब में, स्वयं को भी घोल दो.
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विश्वरूप, नवम्बर चार,२००९
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