चारों तरफ शोर है, कि अन्धकार घोर है ,
इतनी काली रात में, टहल रहे चोर हैं .
उजाले की आशा और सुबह क्र इंतज़ार में,
तिलमिला रहा हूँ मैं, क्यों झूठ के बाज़ार में .
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टिमटिमाते उस दिया की, लौ भी लो बूझने लगी ,
आशाएं जिस पे थी;सांस उसकी भी रूकने लगी .
नहीं कोई नया दिया, नहीं कोई नई दिशा ,
नस नस में घुस गया है, अध बूझा सा यह नशा .
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लड़खड़ा रहा हूँ मैं, कि यह कहाँ खड़ा हूँ मैं,
गन्दगी के ढेर की, ऊंचाई पे चढ़ा हूँ मैं .
साफ सी जगह मुझे, क्यों कभी दिखती नहीं,
माफ़ करना दोस्तों, अब चोट भी लगती नहीं .
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विश्वरूप , नवम्बर १७ ,२००९
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