उस अगाध सागर को , सदा देखा था मैंने शांत ,
किनारों को था थपथपाता ,होता ना कभी क्लांत .
ताकत को रखता था ,अपने अन्दर समेट कर,
खींचकर नीली लकीरे ,अनगिनत द्वीपों पर.
ले गोद में उन टापुओं को, लुभाता सवारता,
मछली से भरे नाव को, हलके से हिलाता.
मछुआरों की नौकाए थी झूमकर हंसती ,
खुशी से नाचते थे वो , जब मछलिया फंसती .
इन्सान को था क्या पता, सागर की शक्ति का ,
क्यों सुनेगा वो भला ,कुदरत की युक्ति का.
जब डोलता सागर हिला, मझधार में थी नाव,
क़यामत आई ऐसी की कोई रख ना पाया पांव .
विश्वरूप