Tuesday, September 29, 2009

उस अगाध सागर को , सदा देखा था मैंने शांत ,
किनारों को था थपथपाता ,होता ना कभी क्लांत .
ताकत को रखता था ,अपने अन्दर समेट कर,
खींचकर नीली लकीरे ,अनगिनत द्वीपों पर.
 
ले गोद में उन टापुओं को, लुभाता सवारता,
मछली से भरे नाव को, हलके से हिलाता.
मछुआरों की नौकाए थी झूमकर हंसती ,
खुशी से नाचते थे वो , जब मछलिया फंसती .
 
इन्सान को था क्या पता, सागर की शक्ति का ,
क्यों सुनेगा वो भला ,कुदरत की युक्ति का.
जब डोलता सागर हिला, मझधार में थी नाव, 
क़यामत आई ऐसी की कोई रख ना पाया पांव . 
 
विश्वरूप    

3 comments:

  1. सुन्दर रचना । बधाई ।

    please remove word verification then it wiil be easy to comment. Thanks

    गुलमोहर का फूल

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  2. इन्सान को था क्या पता, सागर की शक्ति का ,
    क्यों सुनेगा वो भला ,कुदरत की युक्ति का.
    जब डोलता सागर हिला, मझधार में थी नाव,
    क़यामत आई ऐसी की कोई रख ना पाया पांव .
    सुन्दर रचना है बधाई

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  3. ब्लॉग की दुनिया में आपका स्वागत है, आपके लेखन में प्रखरता की आकांक्षी हूँ .......

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